
गुणानंद जखमोला ✍️ देहरादून कल शाम को संस्कृति विभाग प्रेक्षागृह में अनुरागी ब्रदर्स का शो आयोजित किया गया। मुकेश और निर्मल अनुरागी और उनकी बहन अंजलि अनुरागी, तीनों ही बचपन से ही दिव्यांग हैं। इन तीनों की आवाज में मां सरस्वती बसती है और उंगलियों में कोई भी साज खुद-ब-खुद बजने लगता है। स्वर और तान की मधुरता ऐसी कि हृदयवीणा के तार झंकृत हो जाएं। वाकई गजब की प्रतिभा है इन तीनों में। पहाड़ की संस्कृति और लोक गीतों को नया आयाम दे रहे हैं तीनों भाई-बहन।
अनुरागी बद्रर्स पौड़ी के कुटुलमंड गांव के हैं। इन दिव्यांग लोक कलाकारों को प्रश्रय देने का काम कर रहे हैं हास्य कलाकार कृष्णा बगोट और समाजसेवी रघुवीर बिष्ट। रघुवीर बिष्ट बताते हैं कि इस कार्यक्रम आयोजन के लिए संस्कृति विभाग के प्रेक्षागृह को निशुल्क उपलब्ध कराने के लिए संस्कृति विभाग गये तो उन्हें मना कर दिया गया। सीएम कार्यालय से भी सिफारिश की गयी लेकिन बात नहीं बनी। और इन दिव्यांगों से भी विभाग ने हॉल का किराया 15 हजार वसूल लिया। यानी सीएम की भी नही सुनी गयी।
अब बता दें कि संस्कृति विभाग ने पिछले साल जो निनाद कार्यक्रम किया। उसमें इंडियन आइडल फेम पवन राजदीप को बुलाया था। उसको 19 लाख का भुगतान किया गया। सब जानते हैं कि पवन राजदीप बॉलीवुड के पहले से ही गाये गीत गाते हैं। उनका अपना कुछ भी नहीं है न ही वह उत्तराखंड की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते है। इसके बावजूद संस्कृति विभाग ने उन्हें लंबा चौड़ा भुगतान कर दिया।
दूसरी ओर पदमश्री जागर गायिका बसंती बिष्ट का लाखों का भुगतान नहीं किया। जब मैंने सोशल मीडिया पर लिखा तो कुछ भुगतान कर बसंती बिष्ट को मुंह बंद कर दिया गया। निनाद के लोक कलाकारों के भुगतान को लेकर जब मैंने आरटीआई डाली तो जवाब मिला कि स्थानीय कलाकारों के बिल ही नहीं मिले। हद है कि एक महीने बाद भी बिल नहीं मिले, जबकि पवन को चार लाख का अग्रिम भुगतान किया गया था। ये है संस्कृति विभाग उत्तराखंड का हाल है।
इस संबंध में मैंने संस्कृति परिषद की उपाध्यक्ष मधु भट्ट से पूछा, तो उन्होंने कहा कि हॉल उनके दायरे में नहीं आता है। उनका कहना था कि यदि अनुरागी बंधुओं से भी पैसे लिए गये तो यह गलत है। मजेदार बात यह है कि संस्कृति विभाग लोककलाकारों का जमकर खून चूसता है और यदि विभाग के अधिकारियों के यहां सीबीआई या ईडी जांच करे तो पता चलेगा कि करोड़ों का गोलमाल है। इसके बावजूद बेशर्मी है कि संस्कृति के ध्वजारोहकों की कद्र नहीं।