दीप मैठाणी NIU ✍️ पहाड़ों की रानी मसूरी में मॉल रोड और आसपास के क्षेत्रों से सैकड़ों पटरी दुकानदारों को हटाए जाने के बाद से वे चिंतित व और अव्यवस्थित हो कर फिर रहे हैं, इनका प्रमुख आरोप है कि प्रशासन ने बिना वैकल्पिक व्यवस्था किए रोज़ी‑रोटी छीन ली।
वहीं शिफन कोर्ट और अन्य इलाक़ों से हटाए गए या फिर हटाए जाने की कगार पर खड़े परिवार खुद को विकास योजनाओं, रोपवे प्रोजेक्ट और पर्यावरणीय नियमों की कीमत पर “कुर्बान” किए जाने की बात कह रहें हैं।
अदालतों से कुछ मामलों में अस्थायी राहत जरूर मिली है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर लगातार नोटिस, बेदखली और असुरक्षा का माहौल बना हुआ है, इन आंदोलनों में बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल हैं, जो अपने घर, चूल्हे‑चौके और बच्चों के भविष्य की चिंता के साथ सड़कों पर उतरने को मजबूर हुई हैं, लेकिन उनकी आवाज़ अभी भी बिखरी और असंगठित है।
वहीं गजब की बात है कि पिछले कुछ रक्षा बंधन पर्वों पर देहरादून मसूरी क्षेत्र में ऐसे कार्यक्रम हुए जिनमें कैबिनेट मंत्री व मसूरी विधायक गणेश जोशी को हजारों महिलाओं ने राखी बांधी इसकी संख्या आर बात करें तो दस हज़ार से अधिक का आंकड़ा बताया गया, तो कहीं पंद्रह हज़ार “बहनों” का दावा किया गया।
इन आयोजनों में महिलाओं को साड़ी, घड़ी, प्रतीकात्मक उपहार या छाते “सुरक्षा व सम्मान” जैसे वादों की सौगात दी गई, जिन्हें राजनीतिक संदेश के रूप में व्यापक प्रचार मिला और यह छवि गढ़ी गई कि विधायक “हजारों बहनों के भाई” हैं, ऐसे आयोजनों का उद्देश्य पारंपरिक भाई‑बहन के भावनात्मक रिश्ते को राजनीतिक पूंजी में बदलना होता है, ताकि महिला मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग खुद को किसी नेता से व्यक्तिगत रूप से जुड़ा हुआ महसूस करें,
लेकिन बड़ा सवाल है कि ये कथित ‘बहनें’ आज कहां गायब हैं? मसूरी के मौजूदा आंदोलनों में वही महिलाएं प्रमुख रूप से दिख रहीं हैं जो बेघर होने, रोजगार छिनने या बच्चों की पढ़ाई बाधित होने के सीधे खतरे से जूझ रही हैं तो रक्षा बंधन जैसे समारोहों में जुटाई गई “हजारों की भीड़” के क्या मायने हैं ये बहनें इन संघर्षों में संगठित रूप से क्यों नजर नहीं आतीं हैं।
वजह यह है कि बड़े राजनीतिक कार्यक्रमों में शामिल अधिकांश महिलाएं कार्यक्रम‑विशेष के लिए अलग‑अलग बस्तियों, गांवों और शहर के हिस्सों से बसों व गाड़ियों के जरिए लाई जाती हैं, उनमें से अधिकांश किसी एक स्थानीय मुद्दे पर स्थायी संगठन या मोर्चा बनाकर नहीं खड़ी की जातीं, इसलिए जब पटरी व्यापारियों या शिफन कोर्ट के बेघर लोगों जैसे विशिष्ट मुद्दों पर संघर्ष होता है, तो वही महिलाएं आगे आती हैं जिनके हित सीधे दांव पर लगे हैं, जबकि “राखी कार्यक्रमों” की प्रतीकात्मक बहुमत केवल फोटो‑फ्रेम और पोस्टर तक सीमित रह जाती है,
मसूरी की स्थानीय राजनीति उस कड़वी सच्चाई की ओर इशारा करती है, जहां त्योहारों–मौसमों के साथ नेताओं की संवेदनशीलता भी घट‑बढ़ती दिखती है राखी, चुनाव या किसी अभियान के समय महिलाओं को भाई‑बहन के भावनात्मक रिश्ते के नाम पर बुलाया जाता है, लेकिन जब वही महिलाएं रोज़गार या मकान के लिए न्याय मांगती हैं तो प्रशासन सख्ती दिखाता है, उन्हें विरोधी कांग्रेसी और वामपंथी तक साबित करता है, यह किसी राजनेता का दोगलापन नहीं तो और क्या है?…

