अंजली ओझा, स्वतंत्र लेखिका ✍️ रिश्ते सांझी विरासत होते हैं। रिश्तों की बुनियाद ही दो पर टिकी होती है। और उन दोनों में भी समानता का फॉर्मूला काम करता है, न कोई कम न कोई ज्यादा। जो लोग रिश्ते में बड़े होते हैं, हमारी परम्परा में जिन्हें वंदनीय माना है, उनसे हम बराबरी की बात नहीं कर सकते। ऐसे रिश्ते मात्र सम्मान और मर्यादा के कारण चलते/चल पाते हैं। किन्तु अति की गुंजाइश वहाँ भी नहीं है। यह समय न तो सतयुग है और न ही त्रेता, जहाँ बड़े-बूढ़ो के आदेश बिना किसी मीनमेख के माने जाते थे। यह समय आत्मकेंद्रितता का है। यह समय व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्त्व देने का है। पहले आप फिर बाप वाला युग है यह। किन्तु, व्यक्ति अकेला रहने वाला भी प्राणी नहीं है। वह सामाजिक प्राणी है। उसे लोग चाहिए, सम्बन्ध चाहिए, परिवार चाहिए। अकेले रहने वाला या तो तपस्वी होगा या राक्षस। जब व्यक्ति सामाजिक प्राणी है और उसे सम्बन्धों से जुड़कर रहना ही है तो जाहिर तौर पर इस अभीष्ट हेतु कुछ न कुछ समझौते और त्याग करने पड़ते हैं। इन समझौते के बदले में व्यक्ति को मिलता है स्नेह, सामाजिक सुरक्षा, मानसिक सम्बल, ठोस जीविका का आधार। इहलोक में कोई भी वस्तु नि:शुल्क उपलब्ध नहीं है, दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं की प्राप्ति के लिए जिस तरह हम धन देते हैं उसी तरह भावनात्मक आवश्यकता की पूर्ति के लिए हम अपनी भावनाओं का इन्वेस्टमेंट करते हैं। लेन-देन की व्यवस्था में हम एक सिरा पकड़कर नहीं बैठ सकते। यदि हमारी भावना लेने भर की है तो एक दिन वह आता है जब अगला व्यक्ति हमें देते-देते चुक जाएगा और फिर हम उससे कुछ भी पाने की आशा नहीं रख सकते।मेरे अनुभव ने मुझे बताया है कि दुनिया में रक्त सम्बन्ध से अधिक स्थिर और मजबूत दूसरा कोई सम्बन्ध नहीं होता। यहाँ बार-बार अलग होकर एक होने की गुंजाइश रहती है। रक्त सम्बन्ध के बाद पति-पत्नी का रिश्ता ऐसा होता है जो सबसे मजबूत भी है और दुर्बल भी। भारतीय मानस तो विवाह सम्बन्ध को किसी भी तरह से निभाकर जीवन बिता डालने वाले को महान मानता है। इस सम्बन्ध को किसी भी तरह से निभाने में बड़ी भूमिका होती है पत्नी की। क्योंकि स्त्री स्वाभाविक तौर पर गृहणी है। पुरुष प्राकृतिक तौर पर अर्थोपार्जक है। समय और युग बदलने से मूलभूत व्यवस्था नहीं बदला करती, तनिक विरूपण भले ही हो जाए।यदि गृहणी गृहकार्य से अधिक गृहक्लेश करने में लग जाए तो परिवार का क्या होगा? यदि दो लोग एक रास्ते पर साथ चलने की बजाय एक-दूसरे को खदेड़ने लगे तो घर की व्यवस्था का क्या होगा? जहाँ एक होकर ही काम चल सकता है, वहाँ अपना-अपना झण्डा उठाकर चलते हुए समता कैसे कायम रह सकेगी? इन स्थितियों में परिवारों का नाश होता है। कुल की शांति नष्ट हो जाती है। परिवार की मर्यादाओं को चोट पहुँचती है।पिछले दिन की लिखी एक बात पर जो भर-भरके प्रतिक्रियाएँ आई हैं, उससे लगा कि बहुत से परिवार प्रताड़ित हैं। और उसका कारण मात्र एक स्त्री है। मेरे जानने वालों में कई लोग घर की बहू, अपनी पत्नी के झगड़ालू और हिंसक स्वभाव के कारण पीड़ित हैं। और वे इस प्रकार विवश हैं कि न तो जी पा रहे न ही मर पा रहे हैं। परिवार नष्ट होने की कगार पर है, सबकुछ होते हुए भी वे शान्ति से दो समय का भोजन तक नहीं कर सकते। बेटे न तो माँ-बाप के रह गए हैं और न ही पत्नी के। उन्हें दोनों ओर से आरोप और गालियाँ ही मिलती हैं। उनकी स्थिति न मर सकने वाली है और न ही जी सकने वाली। ऐसा भी नहीं है कि केवल उनका परिवार ही बोझ लगता है उनकी पत्नियों को। वे बेचारे स्वयं भी बोझ बने बैठे रहते हैं। यहां तक कि बच्चों की परवरिश भी बोझ की तरह ही की जाती है ऐसी माँओं द्वारा। ऐसी औरतें अपनी जिद और अपने स्वार्थ से ऊपर किसी को भी नहीं समझतीं। न ही वे अपने से बड़ों का सम्मान करती हैं और न ही अपनी ओर खड़े पति की पूजा करती हैं। ये किसी भी स्तर तक गिरकर केवल अपने अड़ियलपने और अपने अहंकार की रक्षा करती हैं। इनकी प्रवृत्ति विनाश की होती है।लड़की जब किसी घर जाती है तो वह अपने साथ पारिवारिक संस्कार लेकर जाती है। बेटियाँ तो अपनी माँओं से ही सबकुछ सीखती हैं। जैसा क्रियाकलाप माताओं का होता है बेटियाँ निन्यानबे प्रतिशत वही करती हैं। माँ से सीखी गई रसोई, माँ से सीखा गई गृहस्थी बेटियों के भविष्य में लौट-लौटकर आती है। मैंने देखा कि माँ से सीखी गए गृहस्थी बनाने और संजोने के गुण मुझमें आए हुए हैं। मैं वो चीजें संजोती हूँ जिनके लिए मैं कभी बहुत लापरवाह हुआ करती थी। जाहिर है परिवार चलाने के गुण भी तो लड़कियों में माँ से ही मिलते होंगे।विवाह के बाद का एक से दो साल का समय जो होता है वह दूसरे परिवार को समझने और खुद को वहाँ पर रहने के लायक बनाने के लिए पर्याप्त होता है। यदि इस समय का उपयोग केवल चीजों को सकारात्मक दृष्टि से समझने में किया जाए तो आने वाला समय सुखद होगा। यदि यही समय अकारण खींचातानी, झगड़े, दम्भ प्रदर्शन में खपा दिया जाए तो आने वाले दस साल भी लगाकर कुछ भी समेटा नहीं जा सकता। रिश्ते में एक बार की पड़ी गांठ पूरी जिंदगी नहीं खुलती। और जब हम अपना एक प्रतिशत भी समर्पण नहीं करना चाहते तो हमें दूसरी ओर से निन्यानबे प्रतिशत पाने की आशा भी नहीं रखनी चाहिए। पति-पत्नी के रिश्ते में प्रेम और कर्तव्य ही तो मुख्य आधार हैं। पति कितना ही प्रेम क्यों न करता हो, लेकिन अगर पत्नी का व्यवहार उसके और उसके परिवार के लिए उपयुक्त नहीं है तो प्रेम नामक चिड़िया को फुर्र होते चार दिन भी नहीं लगते। ऐसा जीवन और ऐसे जीवनसाथी का क्या प्रयोजन जहाँ प्रेम ही न रहे। सहयोग न रहे। फिर तो जीवन दोनों के लिए मरूथल के समान ही हो जाएगा, जहाँ दोनों एक साथ प्यासे हैं जबकि वे चाहते तो साथ मिलकर मीठे पानी की तलैया सा जीवन जी सकते थे। रिश्ते बदले और तानों से नहीं चलते। अधिकार और कर्तव्य एक सिक्के को दो पहलू हैं। एक चाहेंगे तो दूसरा बोनस में मिल जाएगा। मात्र अधिकार का नारा बुलंद करके जीवन असफल है।
उन परिवारों के साथ मेरी पूरी सहानुभूति है, जो ऐसी भयावह परिस्थितियों के साथ अपने कुल का नाश देख रहे हैं। किन्तु कानूनी बंधनों और माया के बंधन के कारण उससे निकल भी नहीं पा रहे हैं। जबकि उन्हें पता है कि उनके अभी और बुरे दिन आने वाले हैं। कुछ भी सुधरने या बदलने वाला नहीं है।

