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हर्षा ने महाकुंभ छोड़ा, दादी संतों से नाराज, बोलीं- दीक्षा लेना गलत नहीं, पोती को रुला दिया, भगवान दंड देंगे

हर्षा ने महाकुंभ छोड़ा, दादी संतों से नाराज, बोलीं- दीक्षा लेना गलत नहीं, पोती को रुला दिया, भगवान दंड देंगे

झांसी।  4 जनवरी को महाकुंभ के लिए निरंजनी अखाड़े की पेशवाई निकली थी। उस वक्त 30 साल की मॉडल हर्षा रिछारिया संतों के साथ रथ पर बैठी नजर आई थीं। पेशवाई के दौरान हर्षा रिछारिया से पत्रकारों ने साध्वी बनने पर सवाल किया था। इस पर हर्षा ने बताया था कि मैंने सुकून की तलाश में यह जीवन चुना है। मैंने वह सब छोड़ दिया, जो मुझे आकर्षित करता था। इसके बाद हर्षा सुर्खियों में आ गईं। वह ट्रोलर्स के भी निशाने पर हैं। मीडिया चैनल ने उन्हें ‘सुंदर साध्वी’ का नाम भी दे दिया।

इसके बाद हर्षा फिर से मीडिया के सामने आईं। कहा- मैं साध्वी नहीं हूं। मैं केवल दीक्षा ग्रहण कर रही हूं। इसी बीच आनंद स्वरूप महाराज ने वीडियो जारी किया। उन्होंने कहा- पेशवाई के दौरान मॉडल को रथ पर बैठाना उचित नहीं है। इससे समाज में गलत संदेश फैलता है। धर्म को प्रदर्शन का हिस्सा बनाना खतरनाक है। साधु-संतों को इससे बचना चाहिए, नहीं तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे, तभी से वार-पलटवार का दौर जारी है। शुक्रवार को हर्षा ने कुंभ छोड़ दिया।

तो वहीं हर्षा की दादी का कहना है कि मेरी पोती हर्षा रिछारिया बचपन से ही अध्यात्म से जुड़ी है। 1995 से जहां भी कुंभ होता है, वहां जाते हैं। साधु-संतों के दर्शन करते हैं। साथ में हर्षा भी जाती थी। अब महाकुंभ की वजह से वो देशभर में चर्चा में आ गईं। उस पर टिप्पणी की जा रही हैं, जो गलत हैं। साधु-संतों को ऐसा नहीं कहना चाहिए। दीक्षा लेना गलत नहीं है। संतों ने पोती को रुला दिया। भगवान सब देख रहे हैं। उन्हेंदंड देंगे। ये कहना है हर्षा रिछारिया की दादी विमला देवी का। प्रयागराज महाकुंभ में पेशवाई के रथ पर बैठने के बाद हर्षा पहले चर्चा फिर विवादों में आ गई। शुक्रवार को उन्होंने महाकुंभ छोड़ दिया।

हर्षा मूलरूप से झांसी के मऊरानीपुर तहसील से 6 किलोमीटर दूर धवाकर गांव की रहने वाली हैं। गांव में अब दादी और चाचा रहते हैं। हर्षा को लेकर उठ रहे विवादों पर दादी और चाचा से पत्रकारों ने बात की।

दादी बोलीं- हर्षा ही नहीं, पूरा परिवार अध्यात्म से जुड़ा हर्षा की दादी विमला देवी ने कहा- हर्षा रिछारिया का जन्म इसी धवाकर गांव में हुआ। उसका बचपन भी गांव में ही बीता। हर्षा बड़ी हुई तो उसकी पढ़ाई को लेकर चिंता हुई। क्योंकि गांव में अच्छे स्कूल नहीं थी। इसलिए उनके पिता दिनेश रिछारिया और मां किरन उसके साथ झांसी में रहने लगे। 25 साल पहले परिवार भोपाल जाकर बस गया। उसके पिता और मां का जीवन संघर्ष में बीता। अब हर्षा और उनके माता-पिता काफी समय से गांव नहीं आए। हर्षा जब छोटी थी तो उसे भगवान की आराधना ज्यादा पसंद थी। खेलते वक्त भी वो भगवान के साथ खेला करती थी। थोड़ी बड़ी हुई तो पूजा-अर्चना करने लगी। हर्षा ही नहीं, पूरा परिवार अध्यात्म से जुड़ा हुआ है।

हर्षा बचपन से शिव चालीसा का पाठ करती थी

दादी ने कहा- हमारा पूरा परिवार धार्मिक है। हम लोग पूजा पाठ करते हैं। कुंभ भी हम लोग जा रहे हैं, उज्जैन कुंभ भी गए। हर्षा जब छोटी थी, तभी से हम लोगों के साथ जा रही थी। ऐसे में उसका अध्यात्म की ओर झुकाव होना नया नहीं है। वह बचपन से ही शिव चालीसा का पाठ करने लगी थी। अब जो उस पर टिप्पणी कर रहे हैं, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। वह हमारी ही नहीं सबकी बेटी है। कई बेटियां वहां पहंची हुई हैं, मगर हमारी पोती को ही लोग टारगेट कर रहे। उसने दीक्षा ली है।

दीक्षा लेना गलत काम नहीं.

दादी ने कहा- भगवान की पूजा करना या दीक्षा लेना कोई गलत काम नहीं है। करीब दो साल पहले हर्षा ने हरिद्वार में कैलाशानंद जी महाराज से दीक्षा ली थी। उनकी सानिध्य में उसने मंत्र, पूजा-पाठ सीखा। जो लोग मेरी पोती के बारे में गलत टिप्पणी कर रहे हैं। उनके बारे में मुझे कुछ बोलना नहीं है। हम तो धार्मिक लोग हैं, सभी फैसले ईश्वर पर छोड़ देते हैं, ये फैसला भी ईश्वर पर है। गलत करने वालों को गलत फल ईश्वर देगा। मेरी पोती को रुला दिया इन लोगों ने। ईश्वर सब देख रहा है।

चाचा बोले – भगवा कपड़ा हर सनातनी को पहनना चाहिए हर्षा के चाचा राजेश रिछारिया ने कहा- हर्षा बड़ी हुई तो पढ़ाई के लिए शहर बदलना पड़ा। यहां से झांसी और फिर करीब 25 साल पहले भोपाल चली गईं। हर्षा बचपन से ही शंकर भगवान की आराधना में लीन रहती थी। जब वो 5 या 6 साल की थी तो शिवाचन करने लगी थी। अब कौन क्या कह रहा है, इस पर कुछ नहीं कह सकता। लेकिन इतना जरूर है कि भगवा कपड़ा हर सनातनी को पहनना चाहिए। जितने भी सनातनी है, वे अपनी पहचान के लिए भगवा कपड़े जरूर पहनें। हर्षा ने जीवन में संघर्ष किया, पिता बस कंडक्टर थे दिनेश रिछारिया ने बताया कि वह झांसी से खजुराहो तक आने वाली बस में कंडक्टर थे। 2004 में उज्जैन कुंभ देखने आए तो भोपाल में आकर बस गए। वह पढ़ाई-लिखाई में अच्छी रही है। 3 साल पहले केदारनाथ गई थी। वहीं जाने के बाद उसका झुकाव अध्यात्म की तरफ बढ़ा। वह रंग बिरंगी दुनिया को छोड़कर अध्यात्म की तरफ जाने लगी। दो साल से ऋषिकेश में रह रही है। लोगों की सेवा के लिए उसने एनजीओ भी बनाया था। उसने काफी संघर्ष किया है।

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